ऐ मानव न बन तू दानव कर थोड़ा सा विचार |
कर रक्षा जंगल और जल की ना इससे बड़ा कोई परोपकार |
एक समय था जब इस धरा पर थे जंगल ही जंगल |
हरियाली थी चारों ओर जंगल में था नाचे मोर |
कल-कल बहती थीं सब नदियाँ पहने सफ़ेद लिबास |
शुद्ध जल और शुद्ध वायु का था इस धरा पर वास |
खुदगर्ज़ी की हदें पार कर तुने जंगल कांटे |
धरती का सीना चीरकर अथाह जल तूने किया बर्बाद |
जल वायु को दूषित करके समझे तू खुद को स्याना |
जल्द ही वो दिन आएगा जब तुझ को पड़ेगा बहुत पछताना |
बन समझदार उठ हो तैयार कर यतन कुछ ऐ मानव |
बदल सोच ना खो तू होश बचा ले धरती माँ की गोद |
कविता के रचयिता - विजय कुमार गुलेरिया
कर रक्षा जंगल और जल की ना इससे बड़ा कोई परोपकार |
एक समय था जब इस धरा पर थे जंगल ही जंगल |
हरियाली थी चारों ओर जंगल में था नाचे मोर |
कल-कल बहती थीं सब नदियाँ पहने सफ़ेद लिबास |
शुद्ध जल और शुद्ध वायु का था इस धरा पर वास |
खुदगर्ज़ी की हदें पार कर तुने जंगल कांटे |
धरती का सीना चीरकर अथाह जल तूने किया बर्बाद |
जल वायु को दूषित करके समझे तू खुद को स्याना |
जल्द ही वो दिन आएगा जब तुझ को पड़ेगा बहुत पछताना |
बन समझदार उठ हो तैयार कर यतन कुछ ऐ मानव |
बदल सोच ना खो तू होश बचा ले धरती माँ की गोद |
कविता के रचयिता - विजय कुमार गुलेरिया
3 comments:
विजय कुमार गुलेरिया जी ने इस काविता के माध्यम से धरती माँ पर मनुष्य द्वारा हो रहे अत्याचार का बखूबी वर्णन किया है!
excellent poem vijay saab
thanks a lot all viewers.
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