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Thursday

पर्यावरण की रक्षा

ऐ मानव न बन तू दानव कर थोड़ा सा विचार |
कर रक्षा जंगल और जल की ना इससे बड़ा कोई परोपकार |
एक समय था जब इस धरा पर थे जंगल ही जंगल |
हरियाली थी चारों ओर जंगल में था नाचे मोर |
कल-कल बहती थीं सब नदियाँ पहने सफ़ेद लिबास |
शुद्ध जल और शुद्ध वायु का था इस धरा पर वास |
खुदगर्ज़ी की हदें पार कर तुने जंगल कांटे |
धरती का सीना चीरकर अथाह जल तूने किया बर्बाद |
जल वायु को दूषित करके समझे तू खुद को स्याना |
जल्द ही वो दिन आएगा जब तुझ को पड़ेगा बहुत पछताना |
बन समझदार उठ हो तैयार कर यतन कुछ ऐ मानव |
बदल सोच ना खो तू होश बचा ले धरती माँ की गोद |

कविता के रचयिता - विजय कुमार गुलेरिया

3 comments:

Poemtreasure.com moderator said...

विजय कुमार गुलेरिया जी ने इस काविता के माध्यम से धरती माँ पर मनुष्य द्वारा हो रहे अत्याचार का बखूबी वर्णन किया है!

Kavi Rajshah said...

excellent poem vijay saab

vijay said...

thanks a lot all viewers.

 


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